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व्यंग्य- आपने मेरा नमक खाया है - आशीष दशोत्तर
व्यंग्य-
आपने मेरा नमक खाया है
- आशीष दशोत्तर
वे घुलनशील हैं। किसी में भी एकदम घुल जाते हैं। घुलते भी इस तरह कि खुद का अस्तित्व मिटा देते हैं। ठीक वैसे ही , कि दाना ख़ाक में मिलकर गुले-गुलज़ार होता है। वे किसी में भी घुलकर उसे खुद जैसा बना देते हैं। पूत के पैर शायद पालने में ही दिख गए होंगे इसलिए उनका नामकरण हुआ लूणचंद।
वे रंगहीन हैं। गंधहीन भी हैं मगर स्वादहीन नहीं। स्वाद उनका गुण भी है और धर्म भी। बार-बार रंग बदलने वालों की फितरत देख उनका रंगों से मन ऊब गया और उन्होंने स्वयं को रंगहीन घोषित कर दिया। यद्यपि नमक की तरह वे भी काला और सफेद दोनों स्वरूप में रहना जानते हैं, फिर भी उन्हें श्वेत रूप में अधिक देखा जाता है। जब सुगंध और दुर्गंध में अंतर करना उनके लिए कठिन हो गया तो उनका गंध से भी मोहभंग हो गया , लिहाजा उन्होंने गंध की तरफ भी नहीं देखा। मगर स्वाद तो स्वाद है। वे उसे नहीं छोड़ पाए और न ही स्वाद ने उन्हें छूटने दिया। उनके बिना स्वाद नहीं और स्वाद के बिना वे नहीं।
वे आटे में नमक की तरह शामिल हो कर आटे को ही नमक सा करने में माहिर हैं। उनका इस तरह विस्तार कई परिभाषाओं को बदल गया। अपने प्रिय संवाद 'सरदार, मैंने आपका नमक खाया है ' का समय-समय पर सभी को वे अहसास करवाते रहे। किसी को भोज पर बुलाते तो भोजन में नमक की मात्रा बहुत कम रखते। भोजन करने वाला नमक मांगता तो उसे यह कहते हुए नमक देते कि 'याद रखना मेरा नमक खा रहे हो।'
आहार तो ठीक व्यवहार में भी नमक की संतुलित मात्रा उन्होंने कभी नहीं रहने दी। उनका मानना रहा कि संतुलित मात्रा होने पर व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है और वह किसी को तत्काल भूल जाता है। असंतुलित स्थिति से संतुलित स्थिति में उसे लाने पर वह कभी नहीं भूलता । नमक की अधिक मात्रा उन्होंने कभी इसलिए नहीं रहने दी क्योंकि नमक अधिक होने पर लोग थू- थू करते और ऐसा होते हुए वे अपनी नज़रों के सामने नहीं देख सकते थे। अलबत्ता सूत्रों से उन्हें पता लग ही जाता कि पीठ पीछे लोग उनके बारे में 'थू-थू' जैसा ही कुछ करते हैं , फिर भी वे कानों सुनी से अधिक यकीन आंखों देखी पर किया करते।
उनकी पसंदीदा दो ही फिल्में रहीं। एक 'नमक हलाल' और दूसरी 'नमक हराम'। 'नमक हलाल' उन्होंने अपने सभी मित्रों को प्रेरित करने के लिए रखी और दूसरी से स्वप्रेरित हो गए । कहानी 'नमक का दारोगा' उन्होंने कभी नहीं पढ़ी, मगर यह कहानी उनकी पसंदीदा कहानियों में शामिल है। वैसे किसी कहानी के प्रिय होने के लिए उसे पढ़ना आवश्यक नहीं होता, सिर्फ उसका नाम याद रखना ज़रूरी होता है। उसके लेखक का नाम याद रखना तो कतई ज़रूरी नहीं, क्योंकि रचना महत्वपूर्ण होती है रचनाकार नहीं।
दुनिया भर के आन्दोलन एक तरफ और उनके लिए 'नमक सत्याग्रह' एक तरफ । यह और बात है कि ये आंदोलन कैसा था, क्या था, किसने किया था, किसलिए किया, कब किया था, इसे जानने की उन्हें न कभी ज़रूरत महसूस हुई , न ही उन्होंने कभी जानने की कोशिश की । चूंकि यह आंदोलन उनके नाम और काम से जुड़ा है इसलिए उनका सर्वाधिक प्रिय आंदोलन है।
आकार और प्रकार बदलने में वे माहिर हैं। जैसे नमक खड़ा भी होता है और आड़ा भी। वे भी इस गुण को रखते हैं। मातहत के सामने तनकर खड़े होते हैं और मोहतरम के सामने आड़े पड़ने के लिए तैयार रहते हैं। नमक शुद्ध-अशुद्ध होता है तो वे भी ऐसा ही स्वभाव रखते हैं । नमक की शुद्धता को लेकर समय-समय पर तरह-तरह के बयान और प्रमाण दिए जाते हैं , ऐसा उनको लेकर भी होता है । हालांकि हर बार, हर प्रमाण ग़लत साबित होता है और वे वैसे ही रहते हैं जैसे वे हैं।
नमक की तरह वे भी हर जगह अपनी उपस्थिति अनिवार्य रूप से दर्ज़ करवाना चाहते हैं, मगर उन्हे ख़बर मिल रही है कि नमक अपनी चमक खो रहा है। लोगों का पानी सूख रहा है। बिना पानी के वे किसमें घुलेंगे, यही चिंता उन्हें खाये जा रही है।
-12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड़
रतलाम-457001
मो.9827084966
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